जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

सबको लॉलीपाप ही चाहिए

                 

   साधो, लगता है कि इंतजार करने का धीरज आज किसी के पास नहीं है । चार-पाँच साल बिजली-संयन्त्र लगाने में निकल जाएँ, उसके बाद बिजली का उत्पादन शुरू हो और तब वह घरों में पहुँचे, यह अधिकांश लोगों को मंजूर नहीं । कल-कारखाने स्थापित करने में बरसों लग जाएँ, तब जाकर जरूरतमंदों को रोजगार मिले, यह भी बहुत कम लोगों को स्वीकार है । विकास के ढाँचे पर वास्तव में काम हो और परिणाम के लिए बरसों टकटकी लगानी हो, तो यह स्थिति सम्भवत: किसी  को स्वीकार नहीं ।
   यह अतीत के कटु अनुभवों का नतीजा भी हो सकता है । राजनीतिक दलों द्वारा अतीत में एक से बढ़कर एक शानदार वादे किए गए और उसी शानदार तरीके से उन्हें भुला भी दिया गया । इन सब चीजों से आमजन ने यह निष्कर्ष निकाला कि भविष्य की काल्पनिक रेवड़ियां खाने से पेट नहीं भरता । भविष्य पर नजर रखने से वर्तमान को भी नजर लग जाती है । कल के लिए आज को कष्ट देना अब लोगों को मूर्खतापूर्ण लगता है ।
   अब लोगों का ध्यान इस बात पर फोकस हो गया है कि सरकार क्या करती है, इस बात से उसका कोई सरोकार नहीं । सरोकार है, तो केवल इस बात से कि हाथों-हाथ परिणाम की प्राप्ति हो जाए । इसके लिए वह किसी को समय देने के लिए तैयार नहीं । तत्काल लाभ जो दे, केवल उसी का भला । राजनीतिक दल और नेता भागते भूत की तरह हैं, जिनसे लंगोटी लेने या छीन लेने में कोई बुराई नहीं । यही वजह है कि वोट के लिए पैसा देने वाले सभी लोगों का स्वागत हो रहा है ।
   जो आज के लाभ की बात कर रहा है, वही सिर-आँखों पर...बस वही जीत भी रहा है । साड़ी, धोती, टीवी, मोबाइल, टैबलेट, लैपटॉप, गेहूँ, चावल, रसोई-गैस, बिजली, पानी-सब कुछ हाथों-हाथ चाहिए । काम भले मत दो, सब्सिडी दो, निठल्ला-भत्ता दो, बहुरंगी पेंशन दो । कर्ज दो, देश का हर्ज करो, पर लौटने-लौटाने का फर्ज भूल जाओ । अम्मा कैंटीन दो, बाबूजी लैट्रिन दो । जनता-रथ दो, हवाई पथ दो, वोट के लिए सब कुछ सामने रख दो ।

   नेता भी समझदार है । वह हनुमान जी की तरह अपना नहीं, बल्कि आमजन की छाती फाड़कर सब कुछ देख-समझ रहा है । उसे भी क्या पड़ी है विकास की । अपना उल्लू सीधा होते रहना चाहिए । अत: वह भी लॉलीपाप ही बाँट रहा है । 

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

समाजवाद के लिए कुछ भी करेंगे

            
   महाराज सियार आज अति प्रफुल्लित भाव में हैं । हवा के झूलों पर सवार होकर आती खबरें उनके मन को गुदगुदा रही हैं । अन्यथा तो परेशान करने वाली खबरें ही आती रही हैं । उन्हें प्रधानमंत्री का इंतजार है खबरों की पुष्टि के लिेए । जब तक अपनों के मुँह से सुन नहीं ली जाती, मन में कोई-न-कोई संशय-सा बना रहता है । इंतजार की उद्विग्नता बढ़ने से पहले ही प्रधानमंत्री महाराज के समक्ष खड़े दिखाई देते हैं ।
   महाराज, गजब हो गया । अधिकांश वन प्रांतों-खंडों के चुनावों में हमारे ही जानवर विजयी हुए । विपक्षियों को हमने धूल चटा दी ।
   गजब की क्या बात है प्रधानमंत्री जी । हमारे मार्गदर्शक नेताजी पुराने अखाड़ेबाज हैं ।’  तना कहकर महाराज हो-हो करने लगते हैं । प्रधानमंत्री भी साथ देते हैं ।
   तभी खबरी खरगोश दरबार--खास में धड़धड़ाता हुआ प्रवेश करता है ।महाराज की जय हो । तेजी से घुटनों तक झुकता है और अगले ही पल सीधा होकर खास खबरों को उड़ेलना शुरु करता है, हुजूर, विपक्षी अपनी पंचम सुर से भोंपुओं को फाड़े जा रहे हैं । उनका आरोप है कि चुनाव में आपके लकड़बग्घों ने खूब हिंसा मचाई ।
   मूर्ख हैं वे सब । क्या उन्हें नहीं पता कि लकड़बग्घों का काम हिंसा फैलाना ही है ? वैसे भी उन्होंने यह हिंसा हमारे राज-सिंहासन की मजबूती के लिए किया । यह उनका राजधर्म था । कहते हुए महाराज की भौंहें तन जाती हैं ।
   पर महाराज, वे तो आपके समाजवाद पर भी सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं । उनका पूछना है कि यह कैसा समाजवाद है कि हर तरफ गुंडागर्दी है, अराजकता है, भाई-भतीजावाद है, जातिवाद है ।
   महाराज की आँखें लाल होने लगती हैं । शब्द रोके नहीं रुकते उनके मुख से । मैंने ठीक ही उपाधि दी थी उनको । उन्हें क्या पता कि समाजवाद के लिए कितनी कुर्बानी देनी पड़ती है । हमने अपना पूरा कुटुंब झोंक दिया है इसकी सेवा में । हमारे त्याग को वे इतना घटिया नाम कैसे दे सकते हैं ? रही बात गुंडागर्दी की, तो वह विवशता है हमारी । समाजवाद की रक्षा के लिए हम इतने प्रतिबद्ध हैं कि कुछ भी कर सकते हैं ।
   एक और आरोप है उनकी तरफ से । उनका कहना है कि खुशी के जश्न में गन चलाकर आपके लकड़बग्घों ने एक मेमने की जान ले ली ।
   देखो, समाजवाद एक यज्ञ की तरह है । उसमें निर्दोष आहुतियों का बड़ा महत्व है । निर्दोष मेमने की आहुति इस यज्ञ के लिए शुभ संकेत है ।

   महाराज असली बात को आम जानवरों तक पहुँचाने का हुक्म देते हैं । खबरी खरगोश तेजी से बाहर निकलता है ।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

देश की बगिया को चरते सांड-बकरे

            

   पिछले दिनों एक बकरे के गिरफ्तार होने की जबर्दस्त खबर आई । हुआ ये था कि बकरा अपनी बदकिस्मती की उंगलियों के इशारे पर नाचता हुआ एक जज की बगिया में घुस गया और चराई-कांड को अंजाम दे डाला । कोई भी कहीं हाथ डालने से पहले एक बार अवश्य सोचता है, खासकर साहब लोगों के यहाँ ऐसा करते वक्त एक बार तो सोचता ही है । सोचना भी चाहिए, पर बकरा मूर्ख टाइप का था । सीधे नाक घुसेड़ दिया बगिया में । उसका चरना जज साहब को बर्दाश्त नहीं हुआ । उन्होंने थाने में शिकायत की । पुलिस तुरंत हरकत में आ गई और अपनी इमेज के अनुरूप काम करते हुए बकरे को धर दबोचा ।
   वैसे गाँव-देहातों में, किसानों के खेतों में बकरे के घुसने से इतनी खलबली नहीं मचती । बकरे के घुसने को घुसना नहीं माना जाता । छोटा जीव है, दस-बीस गाल मार ही लिया, तो कौन सा अपना करम धुल गया । वहाँ तो अक्सर छुट्टे सांड घुसते रहते हैं खेतों में, बगीचों में । सांड खेतों में घुसने के बाद अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन न करे, यह कैसे हो सकता है । खेतों में उतरने के बाद वह सम्पूर्ण सांडगीरी ही दिखाता है । उसकी तरफ से गाँधीगारी दिखाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता । इतना सब कुछ होने पर भी किसान पुलिस के पास शिकायत करने नहीं जाता । उसे लगता है कि पशु-पक्षियों का भी उसके खेतों, फसलों और अनाजों पर हक है । जो उनके हक का है, वे ले जाएंगे और जो उसके हक का होगा, उसे मिलेगा ।
   अगर वह पुलिस से शिकायत करने की सोच भी ले, तो सबसे पहले उसे गौतम बुद्ध बनना होगा । अपनी माँ-बहनों के लिए पुलिस की तरफ से आते मंत्रों को अस्वीकार करने की क्षमता पैदा करनी होगी । बार-बार आग्रह करने पर भी पुलिस उसे यह गलत काम करने से रोकेगी । भला कोई जानवर भी अपराध कर सकता है । उसके दो-चार मुँह मार लेने से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा । पुलिस क्या यही सब करने-धरने के लिए है ।
   उधर किसानों के खेतों की तरह देश की बगिया में भी न जाने कितने सांड और बकरे छुट्टे चर रहे हैं, मगर उनकी शिकायत करने के लिए कोई साहब सामने नहीं आता, क्योंकि अपनी बगिया और देश की बगिया में फर्क होता है न !  किसान बेचारा किस मुँह से इस बगिया की शिकायत करे । उसके लिए अपने खेत और इस बगिया में अंतर ही कितना है ।
                                            


मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

काम की तलाश में

                                       
मेरे एक पुराने मित्र बहुत समय पहले अमेरिका जाकर बस गये । अब वे अपने देश आना चाहते हैं । अगर कोई यह कहे कि उनका देश-प्रेम जाग उठा है, तो यह उनके साथ ज्यादती होगी । दरअसल जब उनका जमाना था, तो यहाँ उन्हें काम नहीं मिला । वे काफी पढ़े-लिखे और वास्तव में योग्य व्यक्ति थे । काम की तलाश में जहाँ कहीं भी जाते, उन्हें या तो काम के अनुरूप अयोग्य माना जाता या उनकी योग्यता का मजाक उड़ाया जाता । थक-हार कर वे अमेरिका चले गये । वहाँ उन्हें हाथों-हाथ लिया गया । अपनी योग्यता के दम पर फर्श से अर्श की दूरी नापने में उन्हें देर न लगी ।
   समय निकलता गया और अब आज का समय है । उनके बाद की दूसरी पीढ़ी योग्यता के मामले में पिछड़ गई । अत: घर, समाज और देश के लिए बे-काम साबित हुई । इसी पीढ़ी के लिए वे अपने देश आना चाहते हैं । जब वे अमेरिका चले गये, तो उनका ब्रेन यहाँ के लिए ड्रेन साबित हुआ । अब वे अपने घर के एक ड्रेन को यहाँ डम्प करना चाहते हैं ।
   मैंने फोन पर आपत्ति दर्ज की—क्या आप इस देश को कचरा घर समझते हैं, सारे कूड़ा-कबाड़ उठाकर यहीं पर...
   मैंने ऐसा तो नहीं कहा, पर मैं अपने देश को अच्छी तरह समझता हूँ । जवानी में सड़कों की खाक छानकर ही यह अनुभव-पुराण रचा है मैंने ।
   पर मुझे ऐसा क्यों नहीं लगता—मैंने प्रतिवाद किया ।
   जिसे नहीं लगता, उसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ...सिवाय अफसोस के । हर जगह मंत्री से लेकर संतरी तक बिखरे पड़े हैं । ईमानदारी से बताओ, उनमें से कितने प्रतिशत योग्य हैं ?
   मित्र का तर्क तो अकाट्य था, फिर भी मैंने काटने की कोशिश की—कुछ भी हो, देश तो चल रहा है न !
   आश्चर्य ! उसे तुम चलना कहते हो । फिर उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा—तुम्हारा भी क्या दोष, उस देश में घिसटना ही चलना है !
   देश घिसट रहा है, तो फिर नई पीढ़ी को क्या घिसटाने के लिेए...
   मेरा पोता चलने के योग्य तो है नहीं । वह घिसट ही सकता है और इस काम के लिए वही जगह मुफीद है । वहाँ कई ऐसे राज्य हैं, जिनके कंगूरों में अयोग्यता का सीमेंट भरा है और हर तरफ उसी सीमेंट के लिए विज्ञापन है ।
   मित्र से डिस्कनेक्ट होकर मैं आँखें बंद कर लेता हूँ और देश पर नजर डालता हूँ । उत्तम प्रदेश का जिसका जितना अधिक दावा है, अयोग्यता का सम्मान वहाँ उतना ही अधिक है । बे-काम वही है, जिसके पास जुगाड़ और दाम नहीं है । मेरे मित्र अमेरिका गये थे, काम की तलाश में और यहाँ आ रहे हैं, काम ही की तलाश में...


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

वोट दो, रोबोट लो

                     

   साधो, सुना है कि रोबोट अब तैयार हो गए हैं नेताओं को अपनी सेवाएं देने के लिए । वे नेताओं के भाषण लिखेंगे । पता नहीं वे अपने को मानव भाषण-लेखक की स्थिति में ले जाना पसन्द करेंगे या मशीन ही बने रहेंगे । मानव मशीन से बहुत आगे की चीज होता है । मानव हाड़-माँस का बना होता है, जबकि मशीन लोहे का ढांचा । मानव को पता होता है कि पूँछ-हिलाने का शुभ-मुहूर्त्त कब है और कौन सा शुभ लग्न अधिक फलदायी होगा । मशीन क्या जाने अदरक का स्वाद ! वह तो कभी भी नहीं जान पाएगी कि पूँछ हिलाना क्या होता है...पूँछ हिलाने के कितने सुख होते हैं तथा उस सुख से कितने मीठे-मीठे फल प्राप्त होते हैं । भले ही रोबोट यह सब नहीं कर सकते, पर कुछ सोचकर ही तो वे तैयार हुए होंगे ।
   रोबोट का कुछ भी सोचना हो, पर नेता खुश हैं । अभी तक उनके भाषण मानव-प्रजाति के जीव ही लिखते थे; अब रोबोट लिखा करेंगे । इस एक उपाय से दो-दो लक्ष्यों का संधान होगा । नेता और उनके भाषण तकनीकी रूप से अपग्रेड हो जाएंगे । साथ ही लोगों की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी कि नेताओं के पास वही घिसे-पिटे शब्द हैं उनके कान में ठूँसने के लिए । आज तक नेता धन-संपत्ति के मामले में ही फुल संपन्न हुआ करता था, अब तकनीक के मामले में भी फुल संपन्न हुआ करेगा । नेता फुल संपन्न हो और आमजन फुल विपन्न, तभी उसे भाषण पिलाने का फुल मजा आता है । नेताओं और आमजन के बीच की बढ़ती दूरी ही लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है ।
   उधर भाषण लेखक अभी से दुख से दुबले हुए जा रहे हैं । भाषण-लेखन से जितना लाभ मिलता था, उससे कई गुना अधिक लाभ पल भर के नेताओं के सानिध्य से हो जाता था । अब वे सड़क पर आने वाले हैं और सड़क पर आना खतरे से खाली नहीं है । हर तरफ भीड़ और कोलाहल है । भीड़ का भेड़ बनने की कल्पना ही उसके दुख का कारण है, पर एक राहत भी है उसके लिए । वह अब पाप का भागी बनने से बच जाएगा । आमजन को उल्लू बनाने वाले भाषण उसे नहीं लिखने पड़ेंगे ।
   नेता और रोबोट की भाषण युगलबंदी पुराने प्रतिमान ध्वस्त कर देगी । एक सीन यूँ उभर रहा है-प्यारे भाइयों, आपकी फटेहाली, तंगहाली, बदहाली, कंगाली देखकर मेरे ड्राई नैन अभी-के-अभी रैन बन गए हैं । वे बरसना चाहते हैं, किन्तु इस डर से रुके हुए हैं कि कहीं आप इन्हें घड़ियाल के आँसू न ठहरा दें । मैं आपको बताना चाहता हूँ कि ये कतई घड़ियाल के आँसू नहीं हैं । ये शुद्ध रोबोट के आँसू हैं ।

   तभी नेता को कुछ गलती जैसा आभास होता है । वह सम्भलते हुए कहता है-मेरा मतलब...आपके दुख-दर्द इतने हैं कि फौलाद की मशीन तक रो पड़े । मैं तो सिर्फ हाड़-माँस का इंसान हूँ । पर भाइयों, आपका दुख अब मेरा दुख है । आपको दुख में कदापि रोना नहीं पड़ेगा । आपकी तरफ से रोबोट आँसू बहाएंगे । मैं सभी भाइयों के लिए एक-एक रोबोट की व्यवस्था करूँगा । अपना दुख मिटाने के लिए आप मुझे ही...

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

दोनों ही काम पर हैं

                         
   साधो, इनका आरोप है कि सत्ताधारी नेता काम नहीं करता, बल्कि बहाने बनाता है । हालांकि इन्होंने ऐसा कहकर एक रहस्य निर्मित कर दिया है । बहाने काम करने के लिए बनाता है या काम न करने के लिए । यह इन्होंने इनके शब्दों पर कान धरने वाले की समझ-नासमझ पर छोड़ दिया है । जो समझ गए हैं या जिन्होंने नहीं भी समझा है, का कहना है कि बहाने बनाना भी तो काम ही है । काम का मंत्र तो सीधा-सपाट होता है, पर बहानों के लिेए...वल्लाह, सौ पापड़ बेलने पड़ते हैं । अगर काम करने का बहाना हो, तो कुछ कम से काम चल जाता है; पर काम न करने का बहाना हो, तो बहुत कुछ करना पड़ता है ।
   उधर सत्ताधारी नेता का आरोप है कि सत्ताहारी नेता न खुद काम कर रहा है और न उसे काम करने दे रहा है । अब सवाल यह है कि सत्ताहारी नेता काम नहीं कर रहा है, तो उसे रोक कैसे रहा है ? रोकना भी काम ही होता है और बड़ी मेहनत का काम होता है । स्फष्ट है कि यह पूरी मेहनत से काम कर रहा है । सत्ता के बंजर-भूमि में बैठा नेता अपने बैलों को उल्टी हांक ही लगाता है । सीधे चलने से फसल नहीं लहलहाने लगती । दूसरा आरोप है कि इसकी वजह से वह भी काम नहीं कर पा रहा है । खिसियानी बिल्ली खम्भा नोंचे । यह भी अपने को वोट न देने वालों से खिसियाया हुआ है । वोट न देने वालों को तो नोंच नहीं सकता, क्योंकि वोट मांगने फिर उन्हीं के पास जाना होगा । अत: उसे ही नोंचकर अपनी संचित ऊर्जा को सुरक्षित रूप से निर्मुक्त कर रहा है । उसे सेफ्टी वाल्व बनने का निरन्तर अवसर दिया जा रहा है इस नेता की तरफ से और वह है कि कहे जा रहा है कि उसे देश के लिए कुछ करने ही नहीं दिया जा रहा ।
   दरअसल दोनों ही काम में लगे हुए हैं । सत्ताहारी नेता न केवल उसकी टांग खींचकर संहार-संहार खेल रहा है, बल्कि सत्ता-सुंदरी से दूरी का निर्मम प्रहार भी झेल रहा है । सड़क से संसद तक उसकी हताशा झलक रही है । इस हताशा का प्रदर्शन ही इसकी आशा का दर्शन है । यह संसद के कूँए में कूद रहा है, किसानों से गलबहियाँ कर रहा है, विभिन्न संस्थानों में छात्रों से मिल रहा है, अच्छी मौतों पर आँसू बहा रहा है, सुबह से शाम तक उपवास करके जूस पी रहा है । देश के लिए इतना कुछ करने के बावजूद भी यह थक कर नहीं बैठता । थकता भी है, तो विदेश जाकर थकान उतार लेता है । अपने देश को कष्ट नहीं देता ।
   उधर वह भी खूब काम कर रहा है । यात्राओं की भरमार है-देश में तो उसकी सरकार है, पर विदेश में भी उसकी दरकार है । वह अंग्रेजी के अक्षरों को महिमामंडित करके समाज को खास संदेश व बीज-मंत्र दे रहा है । वह सत्ताधारी नेता न केवल जनता को विकास-युक्त करना चाहता है, बल्कि देश को इस सत्ताहारी नेता से मुक्त भी करना चाहता है । ऐसे में काम के अलावा काम ही तो होगा ।

   दोनों के पास काम का जंजाल है । काम के कमाल से धमाल मचे, तो आश्चर्य कैसा !

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

मेहनत रंग ला रही है

                 
   देश के बाबा का गौरव उन्हें यूँ ही नहीं हासिल है । कुछ तो बात होगी, जिससे लोग उन्हें ऐसा कहने को विवश हुए । बाबा एक बार आगे बढ़ लेते हैं, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखते । वे आमजन के जीवन में बदलाव लाना चाहते हैं और इसके लिए सतत प्रयत्नशील भी हैं । बदलाव की इस कोशिश का उनका अपना स्टाईल है । वे जब जी में आए, कहीं भी जा धमकते हैं और बदलाव को पीछे से भेज देते हैं ।
   किसान उनका प्रिय पात्र है । उसके कंधे पर उनके हाथ रखते ही बहुत कुछ बदल जाता है । उस किसान का भी बदल गया । कंधे पर हाथ रखकर बाबा तो चले गए, किन्तु बदलाव की बैलगाड़ी राजधानी से उस गाँव की तरफ बढ़ने लगी । विभिन्न सरकारी स्टेशनों से होते हुए वह बैंक जा पहुँची । छ: महीने बाद बैंक के अधिकारी क्रेडिट कार्ड को उस गाड़ी पर लादकर किसान के घर जा पहुँचे । साक्षात बदलाव दरवाजे पर आकर दस्तक देने लगा । वह अगवानी न करता, तो सीधे बाबा का अपमान होता । वर्ष-दर-वर्ष निकल गए । हजार लेने वाले को अब लाख लौटाना है । लेने के लिए बैंक-अधिकारी अब जेट विमान से आ रहे हैं । कितना बड़ा बदलाव आ गया है, सचमुच !
  बदलाव का धुन एक गरीब को चुन उन्हें ले जाता है उसके घर । बेचारा अपनी सीमाएं लांघता है, किन्तु प्रसन्न है । भोजन बढ़िया-से-बढ़िया होना चाहिए । एक अमीर गरीब के घर जाए या एक गरीब अमीर के घर जाए-दोनों ही आने वाले को वह नहीं खिलाते, जो वे खुद खाते हैं । गरीब बढ़कर व्यवस्था करता है और अमीर सिकुड़कर । यही गरीब अमीर का फर्क होता है । बाबा तृप्त होकर चले गए और बदलाव आ गया । घर का एक सदस्य सब-कुछ छोड़कर साहूकार की चाकरी कर रहा है ।
    एक दिन बदलाव बाबा को लेकर अचानक किसी मजदूर के घर जा पहुँचता है । वे उसके कंधे पर हाथ क्या रखते हैं, फोटुओं की झड़ी लग जाती है । वह अगले ही दिन देश के कोने-कोने तक जा पहुँचता है । उसे काम देने वाले इलाके के लोग हाथ खड़े कर देते हैं यह कहते हुए कि उससे मजदूरी करवाकर वे बाबा को बदनाम नहीं कर सकते ।

   वास्तव में बाबा सफल हो रहे हैं । बदलाव जमीन पर दिखाई दे रहा है ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

कहीं देर न हो जाए

                 

   साधो, कई राज्यों में चुनाव सिर पर हैं, मगर कहीं से भी असहिष्णुता-राग के छिड़ने की ध्वनि कानों में रस नहीं घोल रही थी । मन उदास हो चला था कि किसी तानसेन ने तान छेड़ दी । इस बार शुरुआत हैदराबाद घराने से हुई है । यह राग कोई ऐसा-वैसा राग नहीं है, जिसे हमेशा गाया जाए । यह एक खास राग है, जिसे खास मौकों पर ही गाया जाता है । जिस तरह बहुत से मेढक सम्मिलित भाव से टर्र-टर्र करते हुए बरसाती-राग गाते हैं, उसी तरह असहिष्णुता-राग में भी बहुत से लोगों का सम्मिलन इसे परिणाम की दृष्टि से अति प्रभावी बना देता है ।
   असहिष्णुता-राग छेड़ने की प्राथमिक जिम्मेदारी सत्ता या सत्ता के सपने से दूर कर दिए गए राजनेताओं तथा सत्ता की निकटता का सुख भोगने वाले, किन्तु अब वंचित कर दिए गए बुद्धिजीवियों की है । असहिष्णुता से सबसे अधिक पीड़ित यही दो जीव-प्रजातियाँ हैं । जो प्रजाति वर्षों तक सत्ता पर सवार रही या सत्ता रुपी ड्रीम गर्ल के लिएकहीं तो मिलेगी, कभी तो मिलेगी...आज नहीं तो कल गाती रही, अचानक वह बेदखल कर दी गई । बेदखल करने वाली सत्ताधारी जीव-प्रजाति की तरफ से यह असहिष्णुता नहीं, तो और क्या है ? इससे पीड़ित जीव यह राग नहीं गाएगा, तो क्या भांगड़ा करेगा ।
   इधर बुद्धिजीवी की बुद्धि पर लोग शक करने लगे हैं । उन्हें लगने लगा है कि इनके पास बुद्धि नहीं है । ये तो केवल रिमोट से ऑपरेट होने वाले जीव हैं । क्या सचमुच ऐसा ही है ? कदापि नहीं । जुगाड़ तकनीक में इन्हें महारत हासिल है । किताबों की सरकारी खरीद से लेकर सत्ता की निकटता के लाभ से होते हुए पुरस्कारों की बंदरबाँट तक जुगाड़ का उपयोग होता है । जुगाड़ के लिए एकमात्र संसाधन बुद्धि ही होती है । दुख की बात है कि इस जीव-प्रजाति के मौज-मजे के दिन लद गए हैं, जो बिना बुद्धि के भी समझने-देखने पर असहिष्णुता ही दिखाते हैं ।

   मीडिया भी इस राग का आंशिक तानसेन होता है । सुर में सुर मिलाकर उसे बेसुरा बनाना उसी का दायित्व है । शोर और हंगामें ही आजकल आमजन को कर्णप्रिय लगते हैं । इन के अलावा माहौल बनाने की जिम्मेदारी इन पर कान धरने वाले लोगों तथा घटनाओं की भी है । मरने-मारने की घटनाएं तेजी से घटित हों । इतने बड़े देश में असहिष्णुता-राग के सहयोग में दस-बीस मर ही गए, तो कौन सी आफत आ जाएगी । कृपया सहयोग करें । कहीं इसमें बहुत देर न हो जाए । 
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