जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

मंगलवार, 15 मार्च 2016

सम्मान का हकदार भ्रष्टाचार

                    
   भ्रष्टाचार पर न्यायपालिका की भृकुटि टेढ़ी हो गई है । वह इसके साम्राज्य को नेस्तो-नाबूत कर देना चाहती है । वह चाहती है कि इसकी जड़ों में मट्ठा डाल दिया जाए, ताकि यह हमेशा-हमेशा के लिए अपनी जड़ों से हाथ धो बैठे । नंद वंश के साम्राज्य को ध्वस्त एवं नष्ट करने के लिए चाणक्य ने इसी प्रक्रिया व तकनीक का सहारा लिया था । वे इसकी जड़ों में निरन्तर अपने संकल्पों का मट्ठा डालते रहे ।
   न्यायपालिका का कहना है कि भ्रष्टाचार एक प्रकार का आतंकवाद है । इसे पहचानने हेतु आप इसे आर्थिक आतंकवाद कह सकते हैं । फैलाव के नजरिए से देखा जाए, तो यह बंदूक वाले आतंकवाद से कहीं अधिक व्यापक है । सम्मान के नजरिए से भी देखा जाए, तो इसे बंदूक वाले जनाब से अधिक सम्मान हासिल है । पाकिस्तान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर जैसी कुछेक कंपनियां हैं, जो बंदूक वाले आतंकवाद के सम्मान को बढ़ाने के लिए न केवल पूंजीगत निवेश कर रही हैं, बल्कि जबर्दस्त श्रम-शक्ति भी झोंक रही हैं । पर वह सम्मान हासिल नहीं कर सकी हैं, जो भ्रष्टाचार को हासिल है ।
   बंदूक वाले आतंकवाद में एक पक्ष पीड़ित होता है, तो एक पक्ष पीड़ा देने वाला । पीड़ित के मन में आक्रोश की ज्वालाएं दहकती हैं, क्रोध का ज्वालामुखी धधकता है, दुख का समंदर हिलोरें मारता है; तो दूसरी तरफ पीड़ा-प्रदाता तत्काल-सुख के नाले में डूबता-उतराता है । आतंक रूपी अपनी उपलब्धि पर उसे गर्व तो होता है, किन्तु संतोष की प्राप्ति नहीं होती । संतोष हो जाता, तो आगे वह आतंक का मुरब्बा ही क्यों डालता...मतलब वह असंतोष की कड़ाही में फ्राई होता रहता है ।
   यह वाला आतंकवाद थोड़ा हटकर है । वैसे तो भ्रष्टाचार में भी दो पक्ष होते हैं—पीड़ित और पीड़क, किन्तु यहाँ पीड़ित पक्ष की मन की स्थिति भिन्न होती है । काम के लिए वह दर-दर भटकता है, पेट काटकर रिश्वत देने को विवश होता है, किन्तु तमाम जद्दोजहद के बाद काम हो जाने पर वह सुकून की साँस लेता है । रिश्वत लेकर काम करने वाले के लिए उसके मन में दुआ-ही-दुआ होती है । कितना भला आदमी था । पैसा तो लिया, किन्तु काम कर दिया । उधर पीड़क असंतोष की और अधिक गहराई में उतर जाता है । संतोष हो जाता, तो आगे रिश्वत ही क्यों मांगता !

   भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने से पीड़ित पक्ष और अधिक पीड़ित हो उठेगा । वह रिश्वत किसे देगा और काम करवा पाने का सुख कैसे समेट पाएगा ! उधर रिश्वतखोर भी...नो खनकता पैसा, तो समय से काम कैसा ! आतंक की अच्छी-खासी स्थिति तो अब बनने वाली है । अत: भ्रष्टाचार को मात्र आतंकवाद कहकर न्यायपालिका इसे अपेक्षित सम्मान नहीं दे रही है ।

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