जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

लालच की प्यास


   साधो, बचपन से यही पढ़ा और सुना है कि लालच नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लालच एक बुरी बला है । लालच की प्यास मिट जाए, ऐसे उपाय सदा करते रहना चाहिए । पर इधर एक कंपनी का विज्ञापन धमाल मचाए हुए है । कंपनी अपना शरबत बेचने के लिए चाहती है कि लोग लालच की अपनी प्यास को बुझने न दें । वैसे चिलचिलाती धूप की धमकी और धक्का खाए कितने आम इंसान ऐसे होंगे, पता नहीं, जो प्यास को बुझने न देने की हिम्मत रख पाते होंगे । वे तो प्यास के उफान मारते ही सामने ब्लैक एंड व्हाइट या कलर जो भी मिले, गटक लेते हैं । गटकने की एक बड़ी वजह उसका सस्ता होना भी होता है । कंपनी के शरबत तक लालच की प्यास को थर्मामीटर के पारे की तरह चढ़ाने के लिए उनके पास न तो समय होता है और न ही आर्थिक ऊर्जा । कंपनी के शरबत के लिए जेब में अच्छी और टिकाऊ ऊर्जा का होना अनिवार्य शर्त है ।
   वैसे लालच की प्यास बुझ गई होती, तो परम विद्वान रावण न तो सीताजी का अपहरण करता और न ही खुद सहित अपने सम्पूर्ण वंश के विनाश का कारण बनता । लालच उसके लिए बुरी बला साबित हुई । महाभारत की लड़ाई को कोई जानता तक नहीं, अगर दुर्योधन ने लालच की अपनी प्यास बढ़ाई न होती । उसने लालच की प्यास को इतना बढ़ाया कि सुई की नोंक के बराबर भी जमीन देना असहनीय हो गया । लालच की उसकी प्यास उसे मृत्यु तक घसीट कर ले गई ।
   पर आज के समय में लालच एक कला अवश्य बन गई है । राजनीति कभी समाज की सेवा का साधन शायद रही हो, पर आज वह पैसा बनाने और देश को दुहने की एक कला है । लालच की कला इतनी प्रभावी है कि उसने राजनीति को भी एक कला में बदल दिया । चारा घोटाले में भैंसों को स्कूटर से ढोया जाना क्या कला की अनुपम प्रस्तुति नहीं थी । लालच की प्यास बुझ गई होती, तो यह महान कलाकारी देखने को कैसे मिलती ? अपना देश महान घोटालों से वंचित बना रहता और वह दुनिया की नजरों में नहीं आ पाता, यदि लालच की प्यास न होती । घोटालों के वृहद स्वरूप ने यही साबित किया कि लालच की प्यास आदमी को न केवल कलाकार बनाती है, बल्कि लोमड़ी-चातुर्य का दान देकर प्रतिभावान भी बनाती है ।
   सुना है कि नेताओं को यह विज्ञापन खूब भा रहा है । उन्होंने तो शरबत पीना भी शुरू कर दिया है, ताकि लालच की प्यास और भड़के । लकीर का फकीर होने से विकास नहीं होता । लालच अब बला नहीं, एक कला है ।


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