जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 20 मई 2016

अंधेरा कहाँ है आखिर

                            
   आज उसका मन काम में नहीं लग रहा था । तीन बार पानी पीने के बहाने तथा सात बार लघु शंका की टीस के उद्दाम वेग को इशारों में बताकर खेत से बाहर जा चुका था । सहकर्मी मजदूर भी अचंभे में थे...हो क्या रहा है आखिर । पहले तो कभी ऐसा न हुआ था । एक बार काम में जुट गया...तो जुट गया । न पानी पीने का होश, न खाने की चिंता । न पड़ोसी की पड़ोसी-गिरी की चर्चा, न गाँव की राजनीति पर बतकूचन । न अपने दुख-दर्द की रटन्त, न औरों की सुख-संपत्ति से कोई भिड़न्त । उसके पास इतना कैसे हो गया...क्यों हो गया-इन जैसे मसलों से एक आम आदमी अपने स्वभाव के वशीभूत हो अक्सर भिड़ता रहता है ।
   कुछ सहकर्मी तो उसे कोल्हू का बैल भी पुकारा करते थे । कोल्हू का बैल जुतने के बाद न इधर देखता है, न उधर । काम खत्म करने के बाद ही उसे सांस लेने की फुरसत मिलती है । चूँकि इन सब बातों से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता था, अतः सहकर्मियों का रसरंजन बिना विघ्न-बाधा के जारी रहता था । ठीक काम न करने पर, हो सकता है, किसी को आलोचना के अंगारे झेलने पड़ें, पर ठीक काम करने की सूरत में उपहास की उलूक हँसी-ठट्ठों से दो-चार होने की गारन्टी है ।
   भूस्वामी के आगमन की आहट पाते ही मजदूर अनुशासित हो गए थे फौजियों की तरह । लगाम लगने पर ही घोड़ा इच्छित दिशा में दौड़ता है । कुछ मनुष्य अपनी विवेकशीलता का परिचय देते हुए घोड़े से यह गुण उधार में ले लेते हैं । उधर उसपर कोई फर्क नहीं पड़ा था । वह खेत की मेड़ पर इस तरह बैठ गया, जैसे बहुत थक गया हो । भूस्वामी की बुलेट की गति से दौड़ती नजर उससे जा टकराई थी । दुर्घटना का घटित होना स्वाभाविक ही था । समय के अनुसार कम काम के गुस्से का गुब्बारा उसी पर फूट पड़ा ।
   बरसना जब बंद हुआ, तब भूस्वामी की निगाह उसके चेहरे पर थम-सी गई । पूरा चेहरा सराबोर था आँसुओं से । उसे इस तरह भीगे देखकर उन्हें कुछ अपराध-बोध सा हुआ था । बरसने के बाद की शांति मन पर पसरती चली गई थी । आज तक उससे कोई शिकायत नहीं हुई थी । उसके निढाल बैठने के पीछे कोई और कारण तो नहीं । क्या बात है...तुम्हारी तबियत तो ठीक है?
   कोई जवाब नहीं दिया था उसने । ये आँसू ही थे, जो अब भी कुछ कहे जा रहे थे अपनी भाषा में । बार-बार और हठात् पूछने पर उसके धीरज का बर्फ हरहराकर पिघल गया । ठाठें मारकर वह रोने लगा । यह दृश्य भूस्वामी को अच्छा न लगा । वह तनिक उग्र होते हुए बोले-बताएगा भी कि क्या हुआ है तेरे साथ...या यूँ ही बच्चों की तरह मूर्खता करता रहेगा ।
   मालिक, मेरा लड़का बीमार है । उसकी दशा दिनोंदिन खराब होती जा रही है ।
   और तू यहाँ मरने आ गया है...तुझे तो उसका ऑपरेशन कब का करवा देना चाहिए था ।
   पैसे का जुगाड़ नहीं हो पाया । आप ही कुछ दे देते मालिक ।
   यह सुनते ही भूस्वामी उस पर ऐसे चढ़ बैठा, जैसे लाल रंग देखकर भैंसा चढ़ बैठता है । तुम लोगों को तो मांगने का बहाना मिलना चाहिए । पैसे कोई पेड़ पर नहीं फलते । भीख मांगने का इतना ही शौक है, तो किसी चौराहे पर क्यों नहीं बैठ जाते...कटोरा लेकर ।
   उसे चोट लगनी ही थी इन कटु शब्दों से, किन्तु उसके दिल ने महसूस ही नहीं किया ऐसा कुछ । अपने लिए भिखारी शब्द पहली बार नहीं सुन रहा था । कदम बोझिल कदमों से घर की ओर बढ़ रहे थे । उधर वे दृश्य फर्राटा भरने लगे थे ।
   पन्द्रह दिनों तक जिला अस्पताल में रखने के बाद डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था । कुछ पैसे जुगाड़कर लड़के को बड़े शहर में ले आया था । जीवन की उम्मीद तो वहाँ के डॉक्टरों ने बँधाई थी, किन्तु पैसे की उम्मीद को उन लोगों ने उस पर डाल दिया था । ऑपरेशन के लिए पाँच लाख रूपयों की दरकार थी । अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार, गाँव-गिराँव, अपना-पराया-किसके दर पर मत्था नहीं टेका, किसके आगे झोली नहीं फैलाई । किसी को वह अनाड़ी पाकिटमार लगा, तो किसी को अघोषित भिखारी । अनाड़ी पाकिटमार के कुछ हाथ नहीं लगता और भीख लेने के लिए भिखारीपना भी आना चाहिए । स्किल इंडिया में यह स्किल जितना एक नेता के पास है, उतना किसी बड़े शहर के चौराहे पर कटोरा लेकर बैठे भिखारी में भी नहीं ।
   उसे उस दिन पता नहीं क्या सूझी कि इलाके के तमाम नेताओं की चरणगुहारी करने चला गया । जहाँ तमाम अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार कठोरता की चट्टान निकले थे, वहाँ नेता दया का दरिया साबित हुए । उधर से झोली खाली चली आई थी, किन्तु इधर आकर वह लबालब भर गई । आश्वासनों के मोती झोली में इतने ठँस गए कि गिरने लगे थे ।
   तभी बाहर कोई शोर उठा था । उसके दृश्य-प्रवाह में अचानक विराम लग गया । सामने से एक हुजूम चला आ रहा था । मंत्री व इलाके का बड़ा नेता उनके आगे-आगे चल रहा था । निकट आने पर पता चला कि वह दान मांग रहा है । वह अपने पिताजी की एक रिकार्ड-तोड़ ऊँचाई वाली प्रतिमा लगवाना चाहता था । इस नेक काम के लिए जनता से बेहतर दानदाता भला और कौन हो सकता था । जनता ने भी मायूस नहीं किया था । सभी बढ़-चढ़कर रूपये फेंक रहे थे, ताकि नेता की निगाह में चढ़ सकें । भूस्वामी भी एक बड़ी-सी पोटली के साथ आगे आया था और नेता के साथ अपनी सेल्फी ले रहा था ।

   शाम होते-होते नेता की बड़ी-सी गाड़ी नोटों से ठसाठस भर गई । कृतज्ञ नेता हुआ था या जनता कृतज्ञ हुई थी, इसे रात के गहराते जा रहे अंधेरे में कोई देख नहीं सका था । उधर लड़के की तबियत बिगड़ती चली गई थी । आसमान के काले बादल और चमकती बिजली आज कुछ ज्यादा ही डरा रहे थे । अचानक एक तेज बिजली कड़की और इधर घर का दिया बुझ गया । दूर से किसी कुत्ते के रोने की आवाज सुनाई पड़ने लगी थी । वह बाहर निकलकर अंधेरे को पकड़ने की कोशिश में बेतहाशा दौड़ता चला गया था ।

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