जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

कुत्ता नहीं...आदमी गिर रहा था नीचे !

           
   साधो, दिल को आघात पहुँचाने वाली एक घटना अभी हाल ही में घटित हुई है । सोशल मीडिया पर यदि यह वायरल न हुई होती, तो शायद ही कोई जान पाता इस घटना के बारे में । अखबारों में वैसे भी ऐसी घटनाओं के लिए जगह नहीं होती । हाँ, टीवी चैनल वाले जरूर इस तरह की घटनाओं को सूँघते फिरते हैं, ताकि ब्रेकिंग न्यूज में वे आगे रह सकें । अगर इस तरह की घटनाओं को न पकड़ें, तो चौबीसों घंटे चैनल किस तरह चलेंगे और टीआरपी का मायाजाल किस प्रकार बुना जा सकेगा ।
   दरअसल समाज में महत्व के हिसाब से देखा जाए, तो यह एक अति न्यून महत्व की घटना थी । हमारे समाज में कुत्ते कितना महत्व रखते हैं? हम आते-जाते कुत्तों पर अनावश्यक पत्थर फेंककर मुस्कुराते हैं, सड़क पर सोए कुत्तों को लात मारकर बहादुरी का बोध ग्रहण करते हैं, उनपर अपने मुँह की गन्दगी फेंककर तथा विपरीत मौसम में गरम या ठंडा पानी डालकर असीम सुख का अनुभव करते हैं । इन तथ्यों के बावजूद उस घटना का वायरल होना कम-से-कम इस बात की तस्दीक अवश्य करता है कि थोड़ी ही सही, आदमियत अब भी बरकरार है ।
   वरना उस कुत्ते को फेंकने वाले आदमी ही थे, रूप-रंग और आकार-प्रकार के हिसाब से । संयोग से दोनों भविष्य के डॉक्टर हैं । करुणा, दया, सेवा-जिस पेशे के आत्मतत्व हैं, उन्हीं ने ऐसी हरकत की । पैसा जब संस्कार बन जाए, तो इन चीजों को छूटते देर ही कितनी लगती है ! खैर, कुत्ते को उछाल दिया गया उतनी उँचाई से । लोगों ने जान लिया कि कुत्ता नीचे गिर रहा है...गिर गया, पर कुत्ता नहीं गिर रहा था वहाँ । वहाँ तो आदमी गिर रहा था...नीचे...और नीचे ।
   कुत्ते को मैंने गिरते नहीं देखा है कभी । निकट से परिचय तब हुआ था, जब पहली बार इस मुहल्ले में रहने आया था । मुझे देखते ही किसी आँधी की तरह मेरी ओर बढ़ा था । मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे ही अँटक गई थी । उस एक पल में यह भी अहसास हो गया था कि बेटा रैबीज के चौदह टीके ठुँकवाने से अब तुझे कोई नहीं रोक सकता । अफसोस ! आँधी निकट आते ही अचानक थम गई थी । थोड़ी दूरी से ही उसने मुझे सूँघा था और पूँछ झटकारते हुए वापस चला गया था । तब का दिन और आज का दिन । मैं अकसर देर रात को घर आता-जाता हूँ । वह मुझे दूर से ही देखता है । उसका जागरण और अलर्ट-भाव मुझे एक अजीब-सी सुरक्षा का अहसास प्रदान करता है । हालांकि उसके और मेरे बीच के सम्बन्ध को मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ, क्योंकि न तो वह मेरे दरवाजे कभी आया, न मैंने कभी किसी रोटी का टुकड़ा ही उसकी ओर फेंका ।
   उसके प्रति मेरे मन में सम्मान हो, ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा । वह तो दिल के किसी कोने में बैठा हुआ है और व्यवहार तो दिल का ही आईना होता है । उसे देखते ही मेरी नजर झुक जाती है । यही सम्मान का भाव रहा होगा, जब उन निर्माता-निर्देशक ने एक कुत्ते पर फिल्म बनाने की सोची होगी । तेरी मेहरबानियां फिल्म हमारे सामने आई केवल उसके कारण । कुत्ता क्या चीज होता है, इसे जानने के लिए एक फिल्म कभी पर्याप्त नहीं हो सकती । इसके लिए तो एक लम्बी श्रृँखला बनानी होगी ।
   महाभारत काल में जब पांडवों को लगा कि अब इस दुनिया से कूच करना चाहिए, तो वे दुर्गम पहाड़ों की ओर निकल पड़े । जब तक जीवन है, तब तक उसकी सुरक्षा की चाह भी होती है मनुष्य में । हालांकि अपनी सुरक्षा करने में वे हर तरह से सक्षम थे, फिर भी उनके साथ एक कुत्ता चल रहा था । उन्हें यकीन था कि वह न केवल निष्कंटक पथ को दिखलाएगा, बल्कि चौकन्ना रहकर सुरक्षा को भी मजबूत करेगा । यह बात कुत्ते के महत्व और सम्मान को ही दिखलाती है ।

   अक्सर हम किसी को गाली देते हुए कहते हैं कि अमुक अपने कुत्तेपन पर उतर गया है । उस आदमी ने जो किया, उसे देखते हुए गाली यह होनी चाहिए कि अमुक अपने आदमीपने पर उतर गया था । कुत्ता होना कोई गाली नहीं, आदमी होना ही एक बड़ी गाली है ।

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