जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

सेफ्टी-जूते और स्टार्ट-अप

                   

   शाम को पार्क में टहलते हुए शुक्ला जी मिल गए । आज रोज की तरह उनकी चाल में वह तेजी नहीं थी । सामना होते ही मैंने पूछा, ‘क्या बात है मान्यवर, आप तो जैसे पैसेन्जर ट्रेन हो लिए हैं आज?’
   उन्होंने मुझे ध्यान से देखते हुए कहा, ‘कोई बात नहीं है बन्धु । बस यूँ ही थोड़ा ध्यान भटक गया था ।’
   ‘कोई बात तो जरूर है, वरना आपकी ट्रेन तो किसी भी हाल्ट को धकेलते हुए आगे निकल जाती है ।’ मैंने बात को निकलवाने की एक और कोशिश की ।
   ‘बात तो ठीक है आपकी ।’ वह स्वीकार करते हुए बोले, ‘एक चीज है, जो मुझे चिंतित किए जा रही है ।’
   ‘ऐसा क्या?’ मैंने उनकी चिंता के साथ अपनी चिंता को जोड़ते हुए कहा, ‘क्या कोई पारिवारिक समस्या आन खड़ी हुई है?’
   ‘अरे नहीं-नहीं । मैं तो युवाओं की बात सोच रहा था ।’ उन्होंने अपने मन को थोड़ा खोलते हुए कहा ।
   ‘क्यों, युवाओं को क्या हो गया है भला ! भले-चंगे तो दिखते हैं मुझे ।’ मैंने अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा ।
   ‘भले-चंगे दिखते जरूर हैं, पर उनकी अपनी चिंताएँ भी हैं । युवा चिंताग्रस्त रहें, यह देश के लिए चिंतित करने वाली बात है । है कि नहीं?’ कहते हुए उन्होंने अपनी नजरें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं ।
   ‘बेशक, किन्तु उनकी चिंता है क्या?’
   ‘रोजगार की चिंता । चलिए, पहले आराम से किसी बेंच पर बैठते हैं, फिर इस पर सोच-विचार करते हैं ।’ कहते हुए वह एक बेंच की ओर बढ़ गए । मैं भी उनके पीछे-पीछे हो लिया ।
   ‘हाँ, रोजगार की चिंता तो है ही ।’ बेंच पर बैठते हुए मैंने बात को आगे बढ़ाई ।
   ‘सिर्फ रोजगार की ही चिंता नहीं है । चिंता यह भी है कि कौन सा उद्योग-धंधा किया जाए ।’
   अब जाके बात पूरी तरह समझ में आई थी मेरे । मैंने अपनी चिंता रखते हुए कहा, ‘पर हम लोग क्या कर सकते हैं । इस पर तो सरकार को सोचना चाहिए ।’
   ‘सरकार तो सोच ही रही है, बल्कि यूँ कहें कि उसने तो सोच भी लिया है ।’ वह तनिक आश्वस्त होते हुए बोले, ‘स्टार्ट-अप कार्यक्रम आखिर उसी ने तो शुरु किया है । इसके बावजूद युवाओं के सामने समस्या यह है कि वे कौन सा उद्योग शुरु करें...कौन सी ऐसी चीज बनाएँ, जिसकी देश में अच्छी डिमांड हो या निकट भविष्य में हो जाए ।’
   ‘यह तो सचमुच सोचने वाली बात है ।’ मैंने अपने चेहरे पर गम्भीरता के कुछ बादलों को जमाते हुए कहा ।
   ‘पर मैंने तो सोच भी लिया है । आज नेताओं को लेकर जिस तरह घृणा और गुस्सा बढ़ता जा रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए कुछ चीजों की डिमांड भविष्य में खूब बढ़ने वाली है ।’
   ‘मैं कुछ समझा नहीं । आप बात को स्पष्ट तो कीजिए ।’
   ‘वही तो बता रहा हूँ । भविष्य में स्याही और जूते की डिमांड जबर्दस्त रूप से बढ़ने वाली है ।’ उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा ।
   ‘मगर स्याही और जूते ही क्यों?’ ‘वो इसलिए कि इनसे दोहरा लाभ है । नेताओं पर स्याही और जूते फेंक देने मात्र से फेंकने वाले का आक्रोश पिघल जाता है । वह चोट पहुँचाने के लिए ऐसा नहीं करता, बल्कि पोतना और उछालना ही उसकी नीयत होती है । लेकिन दिक्कत यह है कि आज न तो वैसी स्याही है और न ही जूते ।’
   ‘क्यों, दोनों तो मौजूद हैं बाजार में ।’ मैंने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की ।
   ‘मौजूद हैं, मगर उद्देश्य की समुचित पूर्ति नहीं करते । अब बॉल-प्वाइंट पेन का जमाना है । उसकी स्याही निकालकर पोतने में खतरा यह है कि वह जितनी नेता को पोतती है, उससे कहीं अधिक पोतने वाले को पोत डालती है । इसलिए इस काम को अंजाम देने के लिए ‘सेफ्टी स्याही’ की जरूरत है ।’
   ‘चलिए मान लिया, पर जूतों की क्या कमी है? एक खोजिए, दस मिलते हैं ।’
   ‘बेशक मिलते हैं, पर वे उछलने के बाद हिंसा के दूत बन जाते हैं । ऊपर से उनकी बनावट ऐसी है कि उछलते हैं दिल्ली के लिए, किन्तु हवा के प्रतिरोध के चलते लक्ष्य-संधान करते हैं मुम्बई में । जूते ऐसे होने चाहिए, जो सटीक लक्ष्य-संधान करें । इसलिए ‘सेफ्टी-शू’ का निर्माण एक चोखा धंधा है आने वाले समय में ।’

   ‘सचमुच, काफी चिंतन किया है आपने इस मसले पर । युवाओं को निश्चय ही इस पर विचार करना चाहिए । आखिर उनके भविष्य का सवाल जो ठहरा ।’ कहते हुए मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ । वह भी तेज गति से मेरे पीछे लपके । अब हम दोनों समान चाल से पार्क की दूसरी ओर बढ़ रहे थे ।

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