जीवन व समाज की विद्रुपताओं, विडंबनाओं और विरोधाभासों पर तीखी नजर । यही तीखी नजर हास्य-व्यंग्य रचनाओं के रूप में परिणत हो जाती है । यथा नाम तथा काम की कोशिश की गई है । ये रचनाएं गुदगुदाएंगी भी और मर्म पर चोट कर बहुत कुछ सोचने के लिए विवश भी करेंगी ।

रविवार, 28 मई 2017

गरीब-गुरबा पर सीबीआई की रेड

                  

 
चित्र साभार- cariblah.wordpress.com
      अचानक जैसे ही टीवी चैनलों ने ब्रेकिंग न्यूज चलाना शुरू किया, मेरे कुछ पल के आराम को ब्रेक लग गया । ब्रेकिंग न्यूज आ रही थी कि चालू नेता के अलग-अलग ठिकानों पर सीबीआई की रेड हुई है । कई लोग यह समझने की भूल कर सकते हैं कि अगर नेता चालू है, तो यह तो होना ही था उसके साथ । मगर यह भूल स्वीकार नहीं । अरे भई, चाल-चरित्र से वह चालू है या नहीं, यह लेखा-जोखा तो उसके वोटर समझें । मैं तो इतना जानता हूँ कन्फर्म कि वह नाम से चालू है । वैसे भी अगर नाम से काम का गठजोड़ होता, तो कई दारोगा चोर नहीं बने होते और सिंकिया सिंह नामी पहलवान बन खम नहीं ठोंकते ।
      कैमरामैन को लेकर मैं तत्काल ही निकल पड़ा चालू नेता के आलीशान मकान की तरफ । नेताजी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं, पर हमें देखते ही वह हवा-हवाई हो गई । गिरगिट की तरह जो रंग नहीं बदल सकता, वह चालू के स्तर का नेता भी नहीं बन सकता । यहाँ तो हमारा सामना चालू नेता से ही था । कछु सूँघ लिया है का कि चप्पल रगड़ते चले आए हमरे आवास पर? अरे, हमका भी तो बतलाइए ।’ हवाई के स्थान पर अब नरमाई आ गई थी चेहरे पर उनके । वह हमें इशारा करते हुए अपने शानदार कान्फ्रेंस हॉल की ओर बढ़ गए ।
   अंदर पहुँचकर एक कुर्सी पर बैठते ही मैंने पूछा, ‘क्या सचमुच आपको नहीं पता कि आपके गुप्त ठिकानों पर सीबीआई की रेड हुई है?’
   ‘हम कछु नहीं जानते ।’ उन्होंने अपना चेहरा दूसरी तरफ करते हुए कहा, हम तो आपके मुँह से सुन रहे हैं । मगर यह रेड हुई किस बात के लिए है?’
   ‘आपके हजारों करोड़ की बेनामी संपत्ति को लेकर यह सब किया गया है । आरोप है कि आपने अपना काला धन भी जमके सफेद किया है ।’
   ‘का, इतना सब हो गया हमरे साथ !’ वह आश्चर्य के लिए आँखें चौड़ी करते हुए चीखकर बोले, ‘और हमको अब खबर हो रही है । इ तो सरासर धोखा है हमरे साथ । पिछली सरकार तो कछु करने से पहले हमरी अनुमति लिया करती थी । इ लोग हमको बिना बताए कर दिए । सचमुच अहंकारी सरकार है यह ।’
   ‘आप अपनी बेनामी संपत्तियों के बारे में क्या कहना चाहेंगे?’ मैंने इस पर उनकी राय जानने की कोशिश की ।
   ‘इ तो सरासर साजिश है हमरे खिलाफ । हम फासीवादी ताकतों के खिलाफ बोलता हूँ, एही लिए इ साजिश रची गई है । सरकार हमरा मुँह बंद करना चाहती है ।’
   ‘आपका मतलब है कि सरकार साजिश करके आपको संपत्तिवान बनाना चाहती है । वास्तव में आपके पास कोई संपत्ति नहीं है ।’
   ‘हाँ एतना ही नहीं,’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘इ गरीब-गुरबा के ऊपर हमला है । हम गरीब-गुरबा का नेता हूँ । हम पर हमला... मतलब गरीब-गुरबा पर हमला ।’
   ‘यहाँ तो सीधे-सीधे आपके ऊपर रेड पड़ी है । गरीब कहाँ से आ गया बीच में?’ मैंने उनकी बात काटने की कोशिश करते हुए कहा ।
   ‘आप तो जबरजोरी किए जा रहे हैं ।’ उनके चेहरे पर क्रोध के भाव थे । वह तमतमाते हुए बोले, ‘आप तो हमरे और गरीब-गुरबा के बीच में दरार डालना चाहते हैं, पर हम बता देना चाहता हूँ कि कोई भी सफल नहीं होगा । हम गरीब-गुरबा का नेता था, हूँ और हमेशा रहूँगा ।’
   ‘चलिए, किसी भी एक गरीब का नाम बताइए, जिसकी आपने सेवा की हो और वह उसके बाद से गरीब नहीं रहा हो ।’ शायद मेरे शब्दों से चुनौती के भाव उभर आए थे ।
   ‘क्या कहा आपने?...गरीब नहीं रहा ! यही तो मंशा है सरकार की । वह चाहती है कि गरीब नहीं रहे । वह गरीबों को मारकर हमको मारना चाहती है । पर हम चालू हूँ । जब तक समोसे में आलू रहेगा, भरोसे में तब तक ये चालू रहेगा ।’
   ‘आप गरीब-गरीब करते हैं, नसीब-नसीब की भी तो बात करिए । कहाँ उनका नसीब और कहाँ आपका । उनका भोजन तो जगजाहिर है, पर आपके छप्पन भोग...’
चित्र साभार- twitter.com
   ‘इ तो एकदम्मे पोपट वाली बात हुई । कौन बनाया पत्रकार आपको?’ कुछ पल रुककर फिर बोले, ‘गरीब-गुरबा जिस-जिस व्यंजन के लिए लार टपकाता है, हम उसी-उसी व्यंजन को खाता हूँ । इ सुनकर उ लोग संतोष प्राप्त करता है । आज नेता खा रहा है, कल उ लोगन के नसीब होगा ।’
   इतना कहते हुए वे उठकर अपनी गोशाला की ओर बढ़ गए । हम लोग भी उनके पीछे-पीछे । वह एक गाय की पूँछ पकड़ते हुए बोले, ‘आपको सबूत चाहिए ना । हम गोबर की सौगंध खाकर कहता हूँ कि हमरा कोई सम्पत्ति नहीं । हम का करूँगा सम्पत्ति बनाकर । गरीब-गुरबा ही हमरा सम्पत्ति है ।’
   ‘मगर आप साबित क्या करना चाहते हैं गाय और गोबर से? जरा खुलके बताइए प्लीज ।’
   ‘गाय-गोबर से गरीब का नजदीकी नाता है और हमरा तो आप इ सब देख ही रहे हैं ।’ घूमते हुए कैमरे की नजर गाय के ऊपर पड़ते ही वह आगे बोले, ‘जिस प्रकार कोई कम्पनी होलोग्राम चिपकाती है अपने असली माल पर, उसी तरह गोबर और इ सानी-पानी हमरा होलोग्राम है । हम एक बार फिर कहता हूँ कि सरकार ने गरीब-गुरबा पर हमला किया है ।’

   हम सरकार का पक्ष जानने और सबूत की पड़ताल के लिए सीबीआई के दफ्तर का रुख करते हैं ।

रविवार, 21 मई 2017

चाँद की चिता ( भाग-4 )



मरु का-सा है सूखा आँगन


कैसे सावन की पड़ी फुहार है?


कुछ तुम ही बतलाओ राही


मेरे मन पर पड़ा तुषार है । 


                                   जिस  राह  तुम चलते जाते


                                   शूल  वहाँ  मुझे  दिखते  हैं,


                                   इस राह जाओ प्राणीअच्छे


                                   यही   राह  मुझे  लगते  हैं ।


चूता  तन  से  हाय  पसीना


जैसे मन से व्यथा छिटकती,


रात   भी   रोने   लगती   है


ज्यों चाँद की चिता है सजती ।


                                 एक  बूँद  चेहरे   पर  नाचे


                                 एक  बूँद  है  रज  में मरती,


                                 किसे कौन मिलता है आखिर


                                 एक  बूँद  है  मन  में डरती ।


कोई लौटा दे बीते हुए दिन


चित्र साभार - cartoon baotinforum.com
   पहलू-दर-पहलू बदलने के बाद भी मुझे नींद नहीं आई थी । अंततः बिस्तर छोड़कर कमरे से बाहर निकल आया था । इधर मेरे कदम तेज हुए थे, उधर तेज हवा का झोंका आकर टकराया था मेरे बदन से । अगले ही पल मैं पार्क में था । नींद आँखों में नहीं थी, लेकिन उसका आलस-तंत्र बरकरार था अब तक । फूलों से टकराकर आती हवा ने इस तंत्र को पलक झपकते ध्वस्त कर दिया । मैं एक बेंच की ओर बढ़ा । यह क्या, बेंच पर कोई पहले से ही मौजूद था । वह एकदम निकट आने पर ही नजरों में समाने लायक था । ऐसा होने के पीछे उस रोशनी का कुसूर था, जो उस जगह पर नहीं पहुँच रही थी ।
   थोड़ा और निकट आया, तो आश्चर्य कम झटका ज्यादा लगा । वहाँ मौजूद प्राणी और कोई नहीं, छाया बहिनजी थीं । उनका दावा था कि ईश्वर ने किसी और को नहीं, बल्कि केवल उन्हें भेजा है अपने लोगों पर शासन करने के लिए । अतः यह लोगों का दायित्व है कि वह उन्हें ही वोट देकर सत्ता तक पहुँचने में उनकी मदद करे । वह साक्षात ईश्वर की छाया हैं, अतः कम से कम अपने राज्य में सत्ता का सुख लूटने का ठेका भगवान ने केवल उन्हें ही प्रदान कर रखा है ।
   एक आश्चर्य और हुआ । बहिनजी तो मौजूद थीं, किन्तु छाया नदारद थी उनकी । अनगिनत छायाओं के आवरण में रहने वाली के पास इस वक्त कोई छाया नहीं थी । मुझे समझ में नहीं आया कि लानत-मलामत इस रोशनी की हठधर्मिता को भेजूँ या वक्त के तमाशे को । वह मुझे देखकर थोड़ी भयभीत-सी हुईं । कारण उनको घेरे रहने वाला सुरक्षा-दस्ता वहाँ नहीं था और सामने एक आम आदमी खड़ा था । वह चिल्लातीं, इसके पहले ही मैं पीछे हटते हुए बोला, 'आप सुरक्षित हैं, क्योंकि एक आम आदमी आपके साथ है ।'
   ' क्या खाक साथ है ।' वह पहले से ही तैयार बैठी थीं शायद, इसीलिए यह सुनते ही उबल पड़ीं । चीखते हुए बोलीं, 'वह साथ होता, तो आज मैं इस एकान्त में पड़ी होती? आज तो बिस्तर में मेरी नींद भी मेरे साथ नहीं है ।'
   मेरी नजर उनके बदन पर लदे सोने और हीरे पर जा फँसी थी । एक नजर उनकी जूतियों से भी रू--रू होकर चली आई थी । मुझे एहसास हुआ कि सोने आदमी के 'सोने' की गारंटी नहीं होते, अन्यथा बहिनजी अपने आलीशान बंगले में जबर्दस्त मुलायम बिस्तर पर इस वक्त नींद के मजे लूट रही होतीं । मुझे यह देखकर भी दुख का एहसास हुआ कि बदन के हीरे तो जुगनुओं की तरह चमक रहे थे, किन्तु उनके चेहरे की चमक गायब थी ।
   'मैं कुछ समझा नहीं ।' वास्तव में उनके मन की बात को पकड़ नहीं पाया था मैं । अतः बेंच के एक तरफ बैठते हुए मैंने पूछा, 'आप कहना क्या चाहती हैं?'
   'पिछले हर चुनाव में मुझे हार का मुँह देखना पड़ रहा है । मैं कुछ भी करती हूँ, लेकिन हार मेरे ही गले में आकर गिरती है । ऐसा क्यों होता है?'
   हार भी तो आपको बहुत पसंद है । वह नोटों का हार...आप रंग में होती थीं, आम आदमी दंग होता था । यह मेरे मुँह से निकलते-निकलते रह गया । उनके सुनते ही आपे से बाहर होने के पूरे आसार थे । रात के इस सन्नाटे में मैं कोई खतरा मोल नहीं ले सकता था । बहिनजी के सामने तो दिन में भी खतरा है । मैंने उन्हें राहत देने की नीयत से कहा, 'हो सकता है विपक्षियों ने आपके लोगों को भरमा दिया हो या वे लोग वोट के समय जागते-जागते रह गए हों ।'
   'एकदम नहीं । मुझे लगता है कि जिस हद तक उन्हें मूर्ख बनाना चाहिए था, उस हद तक मैं नहीं बना पाई । उन्हें बनाने की कोशिशों में कुछ कमी रह गई ।' कहते-कहते उनके चेहरे पर अफसोस के भाव उभर आए थे । अंदर उनके मन में एक अज्ञात भय भी समा रहा था कि कहीं मूर्ख बनाने के दिन लदने तो शुरु नहीं हो गए !
   'लोकतंत्र में बनाना...' मैंने मूर्ख सा मुँह खोलते हुए पूछा ।
   'बनाना पड़ता है, तभी सारे आम अपनी मुट्ठी में होते हैं । सत्ता को आम आदमी यूँ ही नहीं देता ।'
   उनकी बात मुझे नागवार गुजरी थी, क्योंकि मैं भी एक आम आदमी हूँ । लोग झूठ तो नहीं बोलते कि आम आदमी समझदार होता है और वह मूर्ख कतई नहीं बनता कभी-चाहे वह खुद कोशिश करे या कोई और उसे बनाए ।
   'आज तो यह है कि सत्ता दूर-दूर जा रही है, तो कुछ और भी पीछे छूट रहा है ।' मुझे चुप देख उन्होंने खुद ही बात आगे बढ़ाई थी । कुछ पल रुक कर बोलीं, 'आज संगी-साथी भी मेरा साथ छोड़ चले हैं । जिन्होंने मेरे आशीर्वाद से सत्ता की मलाई जम कर खाई, अब वह भी मीडिया में आँखें तरेरने लगे हैं ।'
   'यही माया है बहिनजी । मैं तो कहता हूँ कि निकल जाइए इस माया के जाल से । माया खुद जीती है, पर औरों को ठीक से जीने नहीं देती ।'
   'आपके कहने का मतलब कि मैं संन्यास ले लूँ? अपनी आज तक की मेहनतों को यूँ ही समर्पण कर दूँ? छाया को उससे', हाथ ऊपर उठाकर, 'आदेश मिला है कि वह अपने लोगों पर शासन करे । छाया उस आदेश की अवमानना नहीं कर सकती ।'
   'तो फिर इतने सालों तक प्रतीक्षा...एकान्त-राग भी आपको संन्यास की ओर ले जाएगा । आपके छोड़ चले साथी आपको इस ओर धकेलें, आप खुद ही...'
   'मैं समझी नहीं आपका मतलब?'
   'सीधा सा है ।' मैंने जवाब दिया, ' आप अपने बंगले को 'माया-आश्रम' नाम दे दीजिए । शेष आपके चेले-चपाटी कर देंगे । यहाँ किसी को मूर्ख बनाना नहीं पड़ता । लोग खुद ही मूर्ख बने चले आते हैं । वहाँ तो आम आदमी शीश झुकाता था, यहाँ तो सत्ता वाले भी झुकते हैं । यहाँ की सत्ता अधिक बलवान है, परन्तु मौन रहकर काम करती है ।'

   बहिनजी असमंजस में दिखाई पड़ती हैं । हालांकि अब उन्हें एहसास होने लगा है कि पुराने दिन अब नहीं लौटने वाले । कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन की याचना करने से तो यही अच्छा है कि दूसरे विकल्प को चुन लिया जाए । कम से कम इज्जत तो बची रह जाएगी । वह मेरी पीठ पर हाथ रखती हैं और उठकर आगे बढ़ जाती हैं । मैं उधर उन्हें बढ़ते हुए देखता हूँ, इधर रात तेजी से आगे बढ़ती है ।        

मंगलवार, 16 मई 2017

मन पीछे छूट रहा है ( भाग-3 )

 पीछे मुड़कर देख रहे तुम


दो कदम आगे बढ़ने पर,


कौन राह चला  आता है


जीवन तज  मरने  पर


                  कदम बढ़ाए  जाते  हो तुम


                  मन तो  पीछे  छूट रहा है,


                  किसकी आह सताती तुमको


                  कौन  लगन को लूट रहा है


एक  कदम  है  रैन  तुम्हारा


एक  कदम दिवस-सा  लगता,


व्यथा  इतनी क्या  सह पाओगे


मन तुम्हारा अमावस सा लगता


                   इन कदमों पर धरा सिसकती


                   जीवन क्या इतना बेजार है?


                   सांझ भी  पागल  हुई जाती


                   यह कैसी  चली  बयार  है

                                     जारी...

नीले सियार का भ्रष्टाचार

  
   पत्रकार-वार्ता में इस वक्त जबर्दस्त भीड़ है । पत्रकारों की संख्या तो उंगलियों पर गिनने लायक है, किन्तु मंत्रियों-सभासदों की ढेर लगी हुई है । वही पत्रकार बुलाए गए हैं, जो प्रश्न पूछते समय दिमाग का इस्तेमाल ज्यादा न करते हों । गड़े मुर्दे उखाड़ने वाले पत्रकार तो कतई नहीं बुलाए गए हैं । वास्तव में महाराज और उनकी पार्टी का प्रचार-प्रसार करने वाले फ्रैंडली पत्रकारों को ही निमंत्रण दिया गया है । इसके बावजूद पत्रकारों का क्या भरोसा ! अगर वे मौखिक रूप से उखड़ या बिदक गए, तो उन्हें, जरूरत पड़ने पर, शारीरिक रूप से मर्यादा की परिभाषा को समझाने के लिए पर्याप्त लोगों का होना तो सदैव ही नियम के अनुकूल रहा है । ऐसे में लोग अगर अपने हों, तो भरोसे का बैरोमीटर ऊँचा से ऊँचा बना रहता है ।
   पत्रकारों का संयम अभी जवाब देने को तैयार नहीं हुआ है, इसलिए भी नीले सियार का आगमन अभी नहीं हो सका है । मंत्री इंतजार में हैं कि कब खदबदाहट शुरु हो । चावल जब पकता है, तभी इसमें मिठास आती है । वरना तो कच्चा-ही-कच्चा । स्वाद व सेहत को गच्चा नहीं दे सकता, कोई भी यूँ ।
   पानी पी-पीकर पत्रकार अब थकने लगे हैं । उबासियों के दौर चलना शुरु होते ही मंत्री सजग हो जाते हैं । एक मिस कॉल की देरी और नीले सियार मंच पर । उनके साथ उप महाराज भी हैं, किसी साए की तरह उनके पीछे-पीछे । माइक पहले उप महाराज ही सम्भालते हैं । उनकी आवाज गूँजती है । वह कहते हैं, ‘देखिए, महाराज की तबियत थोड़ी नासाज है । खाँसी को लगता है अब काशी भेजना ही पड़ेगा । अक्सर आ जाती है किसी पाकिस्तानी आतंकवादी की तरह । पत्रकार वार्ता के ऐन पहले ही उसने हमला बोल दिया । उसके हमले से निपटने में थोड़ा वक्त लग गया । क्षमा चाहेंगे, इसीलिए थोड़ा विलम्ब हो गया ।’
   कानाफूसी शुरु हो जाती है पत्रकारों के बीच । मन में शिकायत व कटुता की जगह प्रशंसा के भाव उभर आते हैं । नीले सियार के माइक पकड़ते ही खबरी खरगोश हाथ उठाता है, किन्तु उन्हें बोलता देख बैठ जाता है । वह कहते हैं, ‘आज इस पत्रकार वार्ता में हम चाहते हैं कि उन सभी आरोपों को उठाया जाए, जो लोगों के बीच कानाफूसियों की शक्ल में अक्सर दिखाई दे रही हैं । हमारे ऊपर लग रहे सभी आरोप मूर्खतापूर्ण हैं और आज हम इसे साबित कर देंगे । कृपया पूछने की शुरुआत की जाए ।’
   इशारा पाते ही खबरी खरगोश फिर खड़ा हो जाता है और पूछता है, ‘महाराज, आपके ऊपर लगा यह आरोप कितना सही है कि आप नंबर एक नौटंकीबाज हैं?’
   प्रश्न सुनकर नीले सियार के चेहरे पर हँसी-सी आती है । वह उसी तरह जवाब देते हैं,’ देखिए, जनता ने हमें जिताया है । हम महाराज उन्हीं की बदौलत हैं । कर्ज है उनका हमारे ऊपर...वोटों का कर्ज । इस कर्ज के बोझ को हम जनता को खुशहाल बनाकर ही उतार सकते हैं । नौटंकी देखने-दिखाने से उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है, तनाव दूर होता है जीवन का । अतः नौटंकी दिखा-दिखाकर हम लगातार उसका मनोरंजन करते रहेंगे । जनता के हित के लिए हमें अपने ऊपर लगाया जा रहा यह आरोप स्वीकार है ।’
   दूसरा प्रश्न एक और पत्रकार खरगोश की तरफ से उछलता है, ‘आप लोगों के ऊपर यह भी आरोप है कि आप लोग कभी भी, कहीं भी, किसी पर भी थूक देते हैं और थूककर आगे निकल लेते हैं ।’
   ‘थूकना कोई शौक नहीं है हमारा ।’ नीले सियार गम्भीर स्वर में बोलते हैं, ‘हम थूककर लोगों को उनकी औकात दिखाना चाहते हैं । लोग हम पर थूकें, इससे पहले ही हम उन पर थूक देते हैं । अटैक इज द फर्स्ट डिफेंस...यू नो । किसी को भी थूकने का हम मौका देना नहीं चाहते । इसीलिए थूकने को हमने अपनी स्टेट पॉलिसी का हिस्सा बना रखा है ।’
   ‘आप लोगों के ऊपर यह भी आरोप है कि आप लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, जबकि ईमानदारी का नगाड़ा बजाकर ही आप लोग सत्ता में आए थे ।’ इस बार एक और कोने से प्रश्न उछला ।
   ‘समाज की धारणा है कि आम जन ही घूस देता है । खुशी से दे या नाखुशी से, पर देना उसे ही है । यही उसकी नियति है । हम इस नियति को बदलना चाहते हैं । हम आम जन के प्रतिनिधि हैं, इसलिए घूस लेने और भ्रष्ट आचरण करने की जिम्मेदारी हमारे कंधों पर ही आती है । जिसे आप भ्रष्ट आचरण कहते हैं, असल में वह हमारा सत्य आचरण है । हमारे भ्रष्टाचार के पीछे हमारी नेक भावना है और लोगों को इसे इसी रूप में देखने की आदत डालनी होगी । दरअसल हम कोई भी काम इस नेक भावना से परे जाकर नहीं करते ।’
   नीले सियार को इत्मीनान है कि अब सभी तक उनकी बात पहुँच जाएगी...वह भी सही अर्थ और कलेवर के साथ । कई चैनलों ने तो अब तक ब्रेकिंग न्यूज झोंकना भी शुरु कर दिया होगा ।

मंगलवार, 9 मई 2017

पथिक : परिचय-बेला ( भाग - दो )

केश  तुम्हारे  उड़े  हुए  हैं


जैसे बदली छिटके अम्बर में,


किस नीर को दौड़े जाते  हो


इस  भरे  हुए  सागर  में ।


                      कंचन  काया  कहाँ गई वह


                      सूखी  काया   लेकर  बढ़ते,


                      जीवन  में यह  कैसी  होनी


                      अनहोनी  को लेकर  चलते ।


कभी नयनों से  आग टपकती


कभी  इनसे है सावन  झरता,


आग-पानी  का  कैसा चक्कर


जीवन में यह क्या है घुलता ।


                      क्या मृत्यु को  देख लिया है


                      क्यों भय से सिमटे लगते हो,


                      पीछे  कोई  व्याघ्र  पड़ा  है


                      मृग  जैसे भागे  लगते हो ।

                                        
जारी...

पथिक : एक परिचय ( भाग-एक )

विचित्र सी बाना पहने


किस पथ के तुम राही हो,


हमें बताओ जरा ठहर के


किस मंजिल के राही हो ।


                    कदम तेज से चलते जाते


                    धूल  लपेटे  वसनों  में,


                    चेहरे पर है व्यथा झलकती


                    दर्द  समेटे  नयनों  में ।


होठों पर प्यास है सिमटी


किस मदिरा की चाह है,


कब से हो तुम प्यासे-वेकल


मन में किसकी आस है ।



                    किन भावों ने मारा तुमको


                    किससे तुम भागे जाते हो,


                    ह्रदय खोल कर हमें बता दो


                    क्यों मौन के गीत गाते हो ? 

                                       

                                                    जारी....                  

मौज का कड़वा घूँट

                                                                  

   नीले सियार अपने सिंहासन पर विराजमान हैं ठीक बगल में उनके खास सलाहकार मुस्तैदी से जमे हुए हैं सामने अन्य पदाधिकारी अपनी-अपनी सीटों से इस तरह चिपके हुए हैं कि देखने वाले को लगे कि उन्हें कुर्सी का कतई मोह नहीं है जब मोह नहीं, तो चिंता किस बात की ! पर एक खास किस्म की चिंता पूरे दरबार पर हावी है अन्य तो अन्य, खुद नीले सियार को भी चिंता हो चली है कहीं सिंहासन के नीचे की जमीन तो भुरभुरी नहीं होने जा रही बात ही ऐसी है बगावत की खबरें रही हैं पुष्टि होना अभी बाकी है और इसीलिए खबरी खरगोश का इंतजार है
   ‘महाराज, क्या आपको लगता है कि ऐसा भी हो सकता है हमारे साथ, कोई बगावत भी कर सकता है?’ सलाहकार ने दरबार की चुप्पी को तोड़ने की गरज से पूछा
   ‘क्यों नहीं, हम आम सियार हैं और कोई नहीं चाहता कि आम का राज हो हर तरफ हमारे खिलाफ साजिश-दर-साजिश है ।’ कहते-कहते नीले सियार के चेहरे पर क्रोध की लाली-सी बिखर गई
   ‘मगर हुजूर, विपक्षियों ने तो एक अलग ही राग को छेड़ रखा है ।’ इस बार आम कल्याण मंत्री अपनी बात को आगे रखते हुए बोले, ‘वे तो खुले-आम आरोप लगा रहे हैं कि हम अब आम कहाँ रहे महंगी गाड़ियों, खूब बढ़ी तनख्वाह और शानदार बंगलों के साथ हम खास वाले मुगल गार्डेन में तो कब के चुके हैं ।’
   ‘यह केवल आरोप नहीं, बल्कि साजिश है हमारे खिलाफ ।’ सिंहासन को हाथों से कसते हुए तेज आवाज में नीले सियार ने कहा, ‘वे नहीं चाहते कि एक आम सियार खास बन जाए उन्हें क्या पता कि खास बनते हुए हमें कितना दुख हुआ था, पर खुशी भी कुछ कम थी आम सियारों में स्पष्ट संदेश जा रहा था कि अब आम रहने के दिन लद गए ।’
   तभी खबरी खरगोश दरबार में प्रवेश करता है हड़बड़ी में नीले सियार की जय बोलते हुए खबरों को उगलना शुरू करता है, ‘खबर सौ फीसदी सच है महाराज जो आपका लंगोटिया यार था, वही अब मैदान में है अविश्वास की आड़ी-तिरछी रेखा खिंच चुकी है विश्वास की भीत दरक गई है बगावत का विगुल बज उठा है ।’
   ‘हम समझे नहीं खबरी, विस्तार से बताओ जरा ।’ कहते-कहते नीले सियार की व्यग्रता चरम पर जा पहुँची थी
   ‘महाराज, उनका कहना है कि हमारा दल जिस मिशन को लेकर चला था, उससे वह भटक चुका है हम अब सत्तालोलुप हो चुके हैं सत्ता ही अब हमारा मिशन है हम आम-आम कहते जरूर हैं, पर काम कुछ नहीं करते सत्ता हमारे लिए मौज-मस्ती का अड्डा बन गई है मौज-मस्ती में और इजाफा हो, इसके लिए हम एक राज्य से दूसरे राज्य को लपक रहे हैं क्या आम अब लपकने की चीज बन गया है?’
   ‘लगता है कोई पद पाकर वह खिसियानी बिल्ली हो गया है और हमारी सत्ता के खम्भे नोंच रहा है हम उसकी हताशा को समझते हैं, पर उसे एक सबक भी देना चाहते हैं सत्ता में आने पर पता चलता है कि मौज क्यों जरूरी है ! आप मौज भी करना चाहें, तो भी मजबूरी में मौज आपको करनी पड़ती है जनता को तब कितना कष्ट होगा, जब उसे पता चलेगा कि सत्ता में बैठकर भी उसके आम सियार को मौज मयस्सर नहीं मौज देखकर ही तो उसे सांत्वना मिलती है कि एक दिन वह भी मौज को प्राप्त होगा ।’
   ‘बेशक महाराज ।’ इस बार सलाहकार ने मुँह खोला, ‘चूँकि हम आम सियार हैं, इसलिए हमारा यह खास कर्तव्य बनता है कि हम ज्यादा से ज्यादा मौज-मस्ती करें, ताकि पीछे की कमियों की भरपाई हो सके ।’
   पूरा दरबार प्रसन्न हो उठता है बगावत और बगावती को दबाने के लिए खास मंत्रियों की एक आत्मतुष्ट टीम छोड़ी जाती है खबरी खरगोश एक टीवी चैनल की ओर भागता है     


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